यहाँ हर आदमी दिखे क्यों परेशान,
क्यों अपने ही छीने है अपनो का मान।
क्यों अपने ही छीने है अपनो का मान।
लालच के पीछे छोड़ी अपनी खुद्दारी,
फिर बचा न हमदर्द न बची उसकी यारी।
फिर बचा न हमदर्द न बची उसकी यारी।
इन्सानियत का मोल बना कौड़ी का दाम,
फरेबों की भीड़ बचे कैसे ईमान।
फरेबों की भीड़ बचे कैसे ईमान।
जिधर देखूँ दिखता धुएं का गुबार,
मुख में है राम और बगल मे कटार।
मुख में है राम और बगल मे कटार।
शहर में मची है ये क्यों आपाधापी,
बढे धरती पे बोझ फिर धरती है काँपी।
बढे धरती पे बोझ फिर धरती है काँपी।
इन पत्थरों के जंगल मे दिल भी बना पत्थर,
दया और रहम की न इनसे उम्मीद कर।
दया और रहम की न इनसे उम्मीद कर।
सोचूँ! काश आएंगे क्या ऐसे भी दिन,
चलेगी ये दुनिया इन बुराइयों के बिन।।
चलेगी ये दुनिया इन बुराइयों के बिन।।
-प्रतिमा
(This text is 100% pure and self made and has not been copied from anywhere else.)
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Very Nice and Inspiring....👍👍
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